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चाँद आज की रात नहीं निकला | शाही शायरी
chand aaj ki raat nahin nikla

नज़्म

चाँद आज की रात नहीं निकला

तसद्द्क़ हुसैन ख़ालिद

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चाँद आज की रात नहीं निकला
वो अपने लिहाफ़ों के अंदर चेहरे को छुपाए बैठा है

वो आज की रात न निकलेगा
ये रात बला की काली-रात

तारे उसे जा के बुलाएँगे
सहरा उसे आवाज़ें देगा

बहर और पहाड़ पुकारेंगे
लेकिन उस नींद के माते पर कुछ ऐसा नींद का जादू है

वो आज की रात न निकलेगा
ये रात बला की काली-रात

मग़रिब की हवाएँ चीख़ेंगी बहर अपना राग अलापेगा
साएँ साएँ

तारीकी में चुपके चुपके सुनसान भयानक रेते पर
बढ़ता बढ़ता ही जाएगा

मौजों की मुसलसल यूरिश में
वो गीत बराबर गाते हुए

जो कोई नहीं अब तक समझा
सब्ज़े में हुई कुछ जुम्बिश सी

वो काँपा
आहें भरने लगा

चाँद आज की रात नहीं निकला
भेड़ें सर नीचे डाले हुए

चुप-चाप आँखों को बंद किए
मैदाँ की उदास ख़मोशी में फ़ितरत की खुली छत के नीचे

क्यूँ सहमी सहमी फिरती हैं
और बाहम सिमटी जाती हैं

चाँद आज की रात नहीं निकला
चाँद आज की रात न निकलेगा