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केक का एक टुकड़ा | शाही शायरी
cake ka ek TukDa

नज़्म

केक का एक टुकड़ा

रफ़ीक़ संदेलवी

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कोहना-तर ज़ीन बदली गई
फिर नई नअल-बंदी हुई

और फ़रस हिनहिनाया
सवार अब सवारी पर मजबूर था

मैं अकेला अज़ा-दार
कितने युगों से

उठाए हुए
जिस्म का ताज़िया

ख़ुद ही अपने जनम-दिन पे मसरूर था
कपकपाती छुरी

केक को वस्त तक
चीर कर रुक गई

दिल लरज़ने लगा
ज़ोफ़ की मारी फूँकों ने

एक एक कर के
भड़कती लवों को बुझाया

अज़ीज़ों ने
बच्चों ने

ताली बजाई
मुबारक मुबारक हुई

केक का एक टुकड़ा
मिरे मुँह में ठूँसा गया

नअल की शक्ल का