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बुज़दिल | शाही शायरी
buzdil

नज़्म

बुज़दिल

बलराज कोमल

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दयार-ए-बर्ग-ए-रा'ना से
गुज़रता हूँ

तो मुझ को ख़ौफ़ आता है
दम-ए-लम्स-ए-परेशाँ से

सदा-ए-दीदा-ए-तर से
मैं उस के रंग को

ख़ुश्बू को उस की नग़्मगी को
हादिसा मजरूह-ओ-दामांदा न कर डालो

ख़ुमार-ए-आरज़ू की इंतिहा पर
मैं क़लम करता हूँ अपनी उँगलियों को

पुतलियों की बस्तियों में
जगमगाते सब सितारों को बुझाता हूँ

मैं ताज़ीम-ए-अदा-ए-नूर के हंगाम में
मानूस चेहरों

और आवाज़ों के साहिल पर
सर-ए-मौज-ए-फ़रावाँ

रौशनी का जरा अंजाम पीता हूँ
मैं अपने हर सफ़र की की आख़िरी क़ुर्बत की मंज़िल हूँ

मैं बुज़दिल हूँ