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बू-अली अंदर-ग़ुबार-ए-नाक़ा गुम | शाही शायरी
bu-ali andar-ghubar-e-naqa gum

नज़्म

बू-अली अंदर-ग़ुबार-ए-नाक़ा गुम

सत्यपाल आनंद

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मैं अगर शाइ'र था मौला तो मिरी ओहदा-बराई क्या थी आख़िर
शाइ'री में मुतकफ़्फ़िल था तो ये कैसी ना-मुनासिब एहतिमाली

क्या करूँ मैं
बंद कर दूँ अपना बाब-ए-लफ़्ज़-ओ-मा'नी

और कहफ़ के ग़ार में झाँकूँ जहाँ बैठे हुए
असहाब माबूद-ए-हक़ीक़ी की इबादत में मगन हैं

और सग-ए-ताज़ी सा चौकीदार उन के पास बैठूँ
वहदत-ओ-तौहीद का पैग़ाम सुन कर

विर्द की सूरत उसे दोहराता जाऊँ
पूछता हूँ

क्या मिरी मश्क़-ए-सुख़न तौहीद की अज़ली शनासा
ओ क़र्ज़ के बिगताशन की दाई' नहीं है

मैं तो रासुल-माल सारा पेशगी ही दे चुका हूँ
क़र्ज़ की वापस अदाई में

मिरे अल्फ़ाज़ का सारा ज़ख़ीरा लुट चुका है
शे'र को हर्फ़-ओ-निदा में ढालना

तस्बीह-ओ-तहलील-ओ-इबादत से कहाँ कमतर है मौला
शाइ'री जुज़वेस्त-अज़-पैग़म्बरी किस ने कहा था

मैं तो इतना जानता हूँ
मेरी तमजीद-ओ-परसतिश लफ़्ज़ की क़िरात में ढलती है

तो फिर तख़्लीक़ का वाज़ेह अमल तस्बीह या माला के मनकों की तरह है
फिर ख़याल आता है शायद मैं ग़लत-आमोज़ हूँ

जो शेर-गोई को इबादत जान कर इतरा रहा हूँ
बू-अली हूँ जो ग़ुबार-नाक़ा में गुम हो गया है