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बुलबुलों के महल | शाही शायरी
bulbulon ke mahl

नज़्म

बुलबुलों के महल

मुनीबुर्रहमान

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क़ैद हैं जिन में शाम-ओ-सहर
जिस ने रक्खा क़दम

बन गया संग-ए-दर
कौन गुज़रा है इस राह से बे-ख़तर

और उन से परे
बादलों में घिरे

कोहसारों के फैले हुए सिलसिले
फ़ासले फ़ासले

एक ताइर की पर्वाज़-ए-बे-जुस्तुजू
एक आवाज़ भटकी हुई कू-ब-कू