क़ैद हैं जिन में शाम-ओ-सहर
जिस ने रक्खा क़दम
बन गया संग-ए-दर
कौन गुज़रा है इस राह से बे-ख़तर
और उन से परे
बादलों में घिरे
कोहसारों के फैले हुए सिलसिले
फ़ासले फ़ासले
एक ताइर की पर्वाज़-ए-बे-जुस्तुजू
एक आवाज़ भटकी हुई कू-ब-कू
नज़्म
बुलबुलों के महल
मुनीबुर्रहमान