पाइप के गहरे लम्बे कश खींचता
वो अपनी बरहनगी के एहसास को
धुवें की शक्ल में
ख़ला में तहलील होते देख कर
मुस्कुराने की कोशिश करता था
उस की नाफ़ के आस-पास
चिपके हुए
शिकस्ता अँधेरे के छोटे छोटे टुकड़े
मेंडक की आँखों में
मरे हुए ख़्वाबों की सीलन में
डूब रहे थे
वो
मुझ को
''गौतम'' के नाम से याद किया जाए
ऐसा
दीवारों पर रेंगती
चियूँटियों से
बार बार कह रहा था
नज़्म
बुध
आदिल मंसूरी