बिंत-ए-हव्वा हूँ मैं ये मिरा जुर्म है
और फिर शाएरी तो कड़ा जुर्म है
मैं तमाशा नहीं अपना इज़हार हूँ
सोच सकती हूँ सो लायक़-दार हूँ
मेरा हर हर्फ़ हर इक सदा जुर्म है
और फिर शाएरी तो कड़ा जुर्म है
मुझ में एहसास क्यूँ हो कि औरत हूँ मैं
ज़िंदगी क्यूँ लगूँ? बस ज़रूरत हूँ मैं
ये मिरी आगही भी मिरा जुर्म है
और फिर शाएरी तो कड़ा जुर्म है
मेरा आँचल जले और मैं चुप रहूँ
ज़ुल्म सहती रहूँ और मैं चुप रहूँ
जानती हूँ मिरा बोलना जुर्म है
और फिर शाएरी तो कड़ा जुर्म है
मेरे जज़्बे रहें दिल के ज़िंदान में
मेरी गुस्ताख़ियाँ आप की शान में
आप का ज़िक्र भी तो बड़ा जुर्म है
और फिर शाएरी तो कड़ा जुर्म है
नज़्म
बिंत-ए-हव्वा
सरवत ज़ेहरा