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बीना | शाही शायरी
bina

नज़्म

बीना

ख़्वाजा रब्बानी

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मैं अक्सर सोचता हूँ
मिरे चश्मे का नंबर बढ़ रहा है

मुझे अतराफ़ की चीज़ें भी
कम दिखने लगी हैं

बहुत मानूस चेहरे थे
वो गुम होने लगे हैं

मगर शायद हक़ीक़त और कुछ है
मैं इस मंज़र से

ग़ाएब हो रहा हूँ