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बे-नवा | शाही शायरी
be-nawa

नज़्म

बे-नवा

शमीम अल्वी

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वक़्त की तुंद-ओ-तेज़ मौजें
मेरे चारों जानिब बहती रहीं

और मैं ब-रग़बत-ओ-रज़ा
उस की हर जिगर-पाश चोट सहती रही

एक मुबहम सी आस के सहारे
कि शायद कभी

बे-मेहर साहिल मेरा हम-नवा हो जाए