वक़्त की तुंद-ओ-तेज़ मौजें
मेरे चारों जानिब बहती रहीं
और मैं ब-रग़बत-ओ-रज़ा
उस की हर जिगर-पाश चोट सहती रही
एक मुबहम सी आस के सहारे
कि शायद कभी
बे-मेहर साहिल मेरा हम-नवा हो जाए

नज़्म
बे-नवा
शमीम अल्वी
नज़्म
शमीम अल्वी
वक़्त की तुंद-ओ-तेज़ मौजें
मेरे चारों जानिब बहती रहीं
और मैं ब-रग़बत-ओ-रज़ा
उस की हर जिगर-पाश चोट सहती रही
एक मुबहम सी आस के सहारे
कि शायद कभी
बे-मेहर साहिल मेरा हम-नवा हो जाए