अभी मैं बर्फ़ से लिपटे हुए जज़ीरे पर
ख़ुद अपने आप से मिलने की आरज़ू ले कर
लगा हुआ हूँ सवेरे को शाम करने में
समुंदरों में उभरते भँवर बुलाते हैं
उफ़ुक़ से आती सदाएँ भी खींचती हैं मगर
मैं अपनी सोच से बाहर निकल नहीं सकता
अजीब ख़्वाबों का बे-नाम सिलसिला है ये
कि ज़िंदगी से कोई राब्ता नहीं मिलता
ख़ुद अपनी खोज में मसरूफ़ रहने वालों को
किसी दरख़्त का साया भी याँ नहीं मिलता
नज़्म
बे-नाम सिलसिले
शारिक़ अदील