मैं ने हर ग़म में तिरा साथ दिया है अब तक
तेरी हर ताज़ा मसर्रत पे हुआ हूँ मसरूर
अपनी क़िस्मत के बदलते हुए धारों के सिवा
तेरी क़िस्मत के भँवर से भी हुआ हूँ मजबूर
तेरे सीने का हर इक राज़ बता सकता हूँ
मुझ में पोशीदा नहीं कोई तिरा सोज़-ए-दरूँ
फ़िक्र-ए-मानूस पे ज़ाहिर है हर इक ख़्वाब-ए-जमील
और हर ख़्वाब से मिलता है तुझे कितना सुकूँ
आज तक तू ने मगर मुझ से न पूछा है कभी
क्यूँ मिरे ग़म से तिरा चेहरा उतर जाता है?
जब मिरे दिल में लहकते हैं मसर्रत के कँवल
क्यूँ तिरा चेहरा मसर्रत से निखर जाता है?
नज़्म
बे-इल्तिफ़ाती
हसन नईम