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बरसात और शाइ'र | शाही शायरी
barsat aur shair

नज़्म

बरसात और शाइ'र

अज़ीमुद्दीन अहमद

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था दरख़्तों को अभी आलम-ए-हैरत ऐसा
जैसे दिलबर से यकायक कोई हो जाए दो-चार

डालियाँ हिलने लगें तेज़ हवाएँ जो चलें
पत्ते पत्ते में नज़र आने लगी ताज़ा बहार

सनसनाहट हुई झोंकों से हवा के ऐसी
छट गईं हूँ कहीं लाखों ही हवाई यकबार

रा'द गरजा अरे वो देखना बिजली चमकी
हल्की हल्की सी वो पड़ने लगी बूंदों की फुवार

रात तारीक है आया है उमँड कर बादल
मैं अकेला न कोई यार न कोई ग़म-ख़्वार

सर्द झोंकों में हवा के है लताफ़त और दिल
उस का ख़्वाहाँ है नहीं मिलने के जिस के आसार

ऐसी बेचैनी ख़ुदाया न हो दुश्मन को नसीब
उस से बद-तर न किसी को हो इलाही आज़ार