जहाँ लकड़ी की मेज़ों और नंगी कुर्सियों में
शह-ए-बलूती गर्दनों का ख़म नज़र आए
वहाँ झुकना इबादत है
मैं नंगे पाँव बाहर आ गया था बर्फ़-बारी में
मिरी खिड़की के नीचे चाँदनी से भी ज़ियादा चाँदनी थी
जब हवा पागल हुई
और तुम ने चेहरा मोड़ कर सोने की कोशिश की
हवा सुनती नहीं है
हवा जब भी चलेगी खिड़कियों पर ज़र्ब आएगी
कोई आवाज़ भी होगी
चलो ऐसा करो सो लो
तुम अपनी नींद दो दिन के लिए महफ़ूज़ कर लो
बर्फ़-बारी में रिफ़ाक़त की हर इक सूरत इबादत है

नज़्म
बर्फ़-बारी में
मोहम्मद अनवर ख़ालिद