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बक़ा-ए-मोहब्बत | शाही शायरी
baqa-e-mohabbat

नज़्म

बक़ा-ए-मोहब्बत

शमीम अल्वी

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दर दीवार और दरीचे
एक मुआहिदा हैं

अदम-ए-मुदाख़लत का मशरूत मुआहिदा
दो मोहज़्ज़ब इंसानों के दरमियाँ

दो मुतमद्दिन ख़ानदानों के दरमियाँ
दीवार

तहज़ीब की तर्जुमान
तमद्दुन की पहचान

और बक़ा-ए-बाहमी की आईना-दार
हीला हुक़ूक़ की ज़मानत

बका-ए-तहीयत की अलामत
हैत और अहाता

ज़ेहनी-ओ-जिस्मानी आसूदगी
और

सुख-चैन के लिए लाज़िम है
दख़्ल दर माक़ूलात

ग़ैर-अख़लाक़ी ही नहीं
ग़ैर-इंसानी रवय्या भी है

घर का हक़ है कि वो
दूसरे घर की बे-जा मुदाख़लत से महफ़ूज़ रहे

हम दीवार तो
हमदर्द होता है

ख़बर-गीर होता है
ख़बर-रसाँ नहीं बन सकता

तख़य्युल आसूदगी
सुख घटाती

और दुख बढ़ाती है
शकर-गंजी पैदा करती है

आज़ुर्दा-दिली का मौजिब बनती है
फ़ासले दीवार की पुख़्तगी से नहीं

दिलों की सख़्ती से बढ़ते हैं
पुख़्ता दीवार तो तमद्दुन की बक़ा है

सूरी फ़ासले बे-मा'नी हो जाते हैं
अगर क़ल्ब-ओ-नज़र शाद हों

हक़ ख़ल्वत ख़लीज नहीं
फ़राख़ी तरफ़ैन है

प्राईवेसी का हक़
तहज़ीब-ए-इंसानी की मेराज है