EN اردو
बन-बास | शाही शायरी
ban-bas

नज़्म

बन-बास

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

;

मैं कि ख़ुद अपनी ही आवाज़ के शो'लों का असीर
मैं कि ख़ुद अपनी ही ज़ंजीर का ज़िंदानी हूँ

कौन समझेगा जहाँ में मिरे ज़ख़्मों का हिसाब
किस को ख़ुश आएगा इस दहर में रूहों का अज़ाब

कौन आ कर मिरे मिटने का तमाशा देखे
किस को फ़ुर्सत कि उजड़ती हुई दुनिया देखे

कौन भड़की हुई इस आग को अपनाएगा
जो भी आएगा मिरे साथ ही जल जाएगा

वो घड़ी कौन थी जब मुझ को मिला था बन-बास
एक झोंका भी हवा का न वतन से आया

ने कोई निकहत-ए-गुल और न कोई मौज-ए-नसीम
फिर कोई ढूँडने मुझ को न चमन से आया

मैं वो इक लाल हूँ जो बिक गया बाज़ारों में
फिर कोई पूछने मुझ को न यमन से आया

याद करते हुए इक यूसुफ़-ए-गुम-गश्ता को
कुछ दिनों रोई तो होगी मिरे घर की दीवार

कुछ दिनों गाँव की गलियों में उदासी होगी
कुछ दिनों खुल न सके होंगे तिरे हार सिंघार

कुछ दिनों के लिए सुनसान सा लगता होगा
आम के बाग़ में बेचैन फिरी होगी बहार

मैं ने इक पेड़ पे जो नाम लिखा था अपना
कुछ दिनों ज़ख़्म के मानिंद वो ताज़ा होगा

मेरे सब दोस्त उसे देख के कहते होंगे
जाने किस देस में बेचारा भटकता होगा

उम्र भर कौन किसे याद किया करता है
एक इक कर के मुझे सब ने भुलाया होगा

हाए उन को भी ख़बर क्या कि वो इक ज़ख़्म-नसीब
ज़िंदगी के लिए निकला था जो राही बन कर

आज तक पा न सका चश्मा-ए-आब-ए-हैवाँ
उस को सूरज भी मिले हैं तो सियाही बन कर

घर से लाया था जो कुछ तब्-ए-रवाँ ज़ेहन-ए-रसा
साथ उस के रहे असबाब-ए-तबाही बन कर

मेरा ये जुर्म कि मैं साहब-ए-इदराक-ओ-शुऊर
मेरा ये ऐब कि इक शाइर ओ फ़नकार हूँ मैं

मुझ को ये ज़िद है कि मैं सर न झुकाऊँगा कभी
मुझ को इसरार कि जीने का सज़ा-वार हूँ मैं

मुझ को ये फ़ख़्र कि मैं हक़्क़-ओ-सदाक़त का अमीं
मुझ को ये ज़ोम ख़ुद-आगाह हूँ ख़ुद्दार हूँ मैं

एक इक मोड़ पे आलाम ओ मसाइब के पहाड़
एक इक गाम पे आफ़ात से टकराया हूँ

एक इक ज़हर को हँस हँस के पिया है मैं ने
एक इक ज़ख़्म को चुन चुन के उठा लाया हूँ

एक इक लम्हे की ज़ंजीर से मैं उलझा हूँ
एक इक साँस पे ख़ुद आप से शरमाया हूँ

यूँ तो कहने की नहीं बात मगर कहता हूँ
प्यार का नाम किताबों में लिखा देखा है

जब कभी हाथ बढ़ाया है किसी की जानिब
फ़ासला और भी कुछ बढ़ता हुआ देखा है

बूँद भर दे न सका कोई मोहब्बत की शराब
यूँ तो मय-ख़ाने का मय-ख़ाना लुटा देखा है