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बैज़ा-ए-महरम | शाही शायरी
baiza-e-mahram

नज़्म

बैज़ा-ए-महरम

कृष्ण मोहन

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अहद-ए-पारीना में भी
ज़ीस्त पर था वहम का कितना असर

एक ओरेकल की तलक़ीं मान कर
शाह आगस्तस की बीवी 'लेविया'

अपनी अंगिया की फ़ज़ा-ए-गर्म में रखती थी इक मर्ज़ी का अण्डा रोज़-ओ-शब
इस को ये विश्वास था

इस के होने वाले बच्चे और इस चूज़े की जिंस
एक होगी आख़िरश यूँही हुआ

आशियाँ गर्म-ओ-शोख़-ओ-नर्म से
एक नर निकला तो उस की कोख से भी एक नर पैदा हुआ टाइबिरेस

और फिर उस इत्तिफ़ाक़ी वाक़े' ने तो ज़नान-ए-रोम में
आम कर दी बैज़ा-ए-महरम की तर्बियत की रस्म