अहद-ए-पारीना में भी
ज़ीस्त पर था वहम का कितना असर
एक ओरेकल की तलक़ीं मान कर
शाह आगस्तस की बीवी 'लेविया'
अपनी अंगिया की फ़ज़ा-ए-गर्म में रखती थी इक मर्ज़ी का अण्डा रोज़-ओ-शब
इस को ये विश्वास था
इस के होने वाले बच्चे और इस चूज़े की जिंस
एक होगी आख़िरश यूँही हुआ
आशियाँ गर्म-ओ-शोख़-ओ-नर्म से
एक नर निकला तो उस की कोख से भी एक नर पैदा हुआ टाइबिरेस
और फिर उस इत्तिफ़ाक़ी वाक़े' ने तो ज़नान-ए-रोम में
आम कर दी बैज़ा-ए-महरम की तर्बियत की रस्म
नज़्म
बैज़ा-ए-महरम
कृष्ण मोहन