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बहुत है एक नज़र | शाही शायरी
bahut hai ek nazar

नज़्म

बहुत है एक नज़र

बाक़र मेहदी

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क़दम क़दम पे मुझे ये ख़याल आता है
तिरी नज़र का सहारा मिले तो क्या कम है!

ख़िज़ाँ में रह के बहारों की आरज़ू न करूँ
जो ज़ख़्म-ए-दिल भी महक कर खिले तो क्या कम है!

हज़ार चाक हैं दामान-ए-ज़िंदगी के मगर
जो एक चाक-ए-गरेबाँ सिले तो क्या कम है!

तमाम तीरा मनाज़िल से मैं गुज़र जाऊँ
जो एक शम-ए-मोहब्बत जले तो क्या कम है!

वो गीत जो मिरे होंटों पे आ नहीं सकता
वो अश्क-ए-ग़म के सहारे ढले तो क्या कम है!

रह-ए-हयात में दीवानगी की मंज़िल पर
सँभल सँभल दिल-ए-नादाँ चले तो क्या कम है!

ये गोमती ये अवध की हसीन रक़्क़ासा
मैं सोचता हूँ इसे राज़-दाँ बना डालूँ

फ़ज़ा पे सुरमई आँचल उढ़ा के दूर तलक
इसी ज़मीं पे नया आसमाँ बना डालूँ

ये मेरे अश्क-ए-मोहब्बत के पासदार भी हैं
बहुत है एक नज़र भी जो ग़म की महरम हो

मैं इस नज़र से नया आस्ताँ बना डालूँ
क़दम क़दम पे मुझे ये ख़याल आता है

तिरी नज़र का सहारा मिले तो क्या कम है!