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बहरूपनी | शाही शायरी
bahrupni

नज़्म

बहरूपनी

कैफ़ी आज़मी

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एक गर्दन पे सैकड़ों चेहरे
और हर चेहरे पर हज़ारों दाग़

और हर दाग़ बंद दरवाज़ा
रौशनी इन से आ नहीं सकती

रौशनी इन से जा नहीं सकती
तंग सीना है हौज़ मस्जिद का

दिल वो दूना पुजारियों के ब'अद
चाटते रहते हैं जिसे कुत्ते

कुत्ते दूना जो चाट लेते हैं
देवताओं को काट लेते हैं

जाने किस कोख ने जना इस को
जाने किस सेहन में जवान हुई

जाने किस देस से चली कम-बख़्त
वैसे ये हर ज़बान बोलती है

ज़ख़्म खिड़की की तरह खोलती है
और कहती है झाँक कर दिल में

तेरा मज़हब, तिरा अज़ीम ख़ुदा
तेरी तहज़ीब के हसीन सनम

सब को ख़तरे ने आज घेरा है
ब'अद उन के जहाँ अँधेरा है

सर्द हो जाता है लहू मेरा
बंद हो जाती हैं खुली आँखें

ऐसा लगता है जैसे दुनिया में
सभी दुश्मन हैं कोई दोस्त नहीं

मुझ को ज़िंदा निगल रही है ज़मीं
ऐसा लगता है राक्षस कोई

एक गागर कमर में लटका कर
आसमाँ पर चढ़ेगा आख़िर-ए-शब

नूर सारा निचोड़ लाएगा
मेरे तारे भी तोड़ लाएगा

ये जो धरती का फट गया सीना
और बाहर निकल पड़े हैं जुलूस

मुझ से कहते हैं तुम हमारे हो
मैं अगर इन का हूँ तो मैं क्या हूँ

मैं किसी का नहीं हूँ अपना हूँ
मुझ को तंहाई ने दिया है जनम

मेरा सब कुछ अकेले-पन से है
कौन पूछेगा मुझ को मेले में

साथ जिस दिन क़दम बढ़ाउँगा
चाल मैं अपनी भूल जाऊँगा

ये और ऐसे ही चंद और सवाल
ढूँडने पर भी आज तक मुझ को

जिन के माँ बाप का मिला न सुराग़
ज़ेहन में ये उंडेल देती है

मुझ को मुट्ठी में भेंच लेती है
चाहता हूँ कि क़त्ल कर दूँ इसे

वार लेकिन जब इस पे करता हूँ
मेरे सीने पे ज़ख़्म उभरते हैं

मेरे माथे से ख़ूँ टपकता है
जाने क्या मेरा इस का रिश्ता है

आँधियों में अज़ान दी मैं ने
संख फूँका अँधेरी रातों में

घर के बाहर सलीब लटकाई
एक इक दर से उस को ठुकराया

शहर से दूर जा के फेंक आया
और एलान कर दिया कि उठो

बर्फ़ सी जम गई है सीनों में
गर्म बोसों से उस को पिघला दो

कर लो जो भी गुनाह वो कम है
आज की रात जश्न-ए-आदम है

ये मिरी आस्तीन से निकली
रख दिया दौड़ के चराग़ पे हाथ

मल दिया फिर अँधेरा चेहरे पर
होंट से दिल की बात लौट गई

दर तक आ के बरात लौट गई
उस ने मुझ को अलग बुला के कहा

आज की ज़िंदगी का नाम है ख़ौफ़
ख़ौफ़ ही वो ज़मीन है जिस में

फ़िरक़े उगते हैं फ़िरक़े पलते हैं
धारे सागर से कट के चलते हैं

ख़ौफ़ जब तक दिलों में बाक़ी है
सिर्फ़ चेहरा बदलते रहना है

सिर्फ़ लहजा बदलते रहना है
कोई मुझ को मिटा नहीं सकता

जश्न-ए-आदम मना नहीं सकता