बुलंद-आहंगियों ने फाड़ डाले कान के पर्दे
हूँ वो मुतरिब जो ख़ुद अपनी सदा ही सुन नहीं सकता
हवाएँ ले उड़ी हैं सिलसिले को मेरे नग़्मों के
मैं इन बिखरी हुई कड़ियों को अपनी चुन नहीं सकता
ग़ुरूर-ए-ख़ुश-नवाई बोझ सा है मेरी गर्दन पर
ज़माना वज्द में है और मैं सर धुन नहीं सकता
नज़्म
बहरा गोया
परवेज़ शाहिदी