बहाने ढूँढता हूँ मैं
कि दफ़्तर से ज़रा जल्दी ही उठ जाऊँ
(मुझे क्या दोस्तों से जा के मिलना है?)
नहीं
इक दूसरे से हम सभी तंग आए बैठे हैं
(मुझे क्या घर पहुँचना है?)
नहीं हरगिज़ नहीं
उल्टा
बहाने ढूँढता हूँ मैं
कि जितना हो सके उतना ही मैं घर देर से पहुँचूँ
(मुझे हासिल नहीं क्या बीवी बच्चों की मोहब्बत?)
है, मगर फिर भी न जाने क्यूँ
बहाने ढूँढता हूँ मैं
उन्हें कुछ अर्सा को मैं भेज दूँ बाहर
कहाँ लेकिन
नहीं मालूम कुछ मुझ को
तो फिर क्या मेरी शामों में
तअल्लुक़ की हँसी और चाप शामिल है
नहीं तो
फिर मुझे क्या खाए जाता है
कि मैं बंध कर कहीं भी रह नहीं सकता
बहाने ढूँढता हूँ
तोड़ने को कौन सा बंधन
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नज़्म
बहाने ढूँडता हूँ मैं
मनमोहन तल्ख़