मैं ने कल एक ख़्वाब देखा
कि मैं ख़्वाब देख रहा हूँ
मेरी नींद मेरे जिस्म के अंदर रह रही है
मुझ तक मुंतक़िल नहीं हो पा रही
आँखों में बसारत है
मगर मुझे दिखाई नहीं दे रहा
मैं चलता हूँ
मगर पाँव हरकत नहीं कर पाते
घुटन के मारे साँस लेता हूँ
तो रेत मुँह से निकलती है
मैं ख़्वाब से बे-दार हो जाता हूँ
ख़ौफ़ की थकावट मेरे जिस्म से उतरने लगती है
तो मैं महसूस करता हूँ
मैं दीवारों से इस तरह गुज़र रहा हूँ
जैसे शीशे से रौशनी...
जैसे दरवाज़े की दुर्ज़ों से हवा...
मैं हाथ लम्बे कर के सितारे तोड़ लाता हूँ
और पाँव फैला के ज़मीन में उतर जाता हूँ
मुझ में यक-दम ख़्वाहिश पैदा होती है
कि मैं चीख़ूँ
चीख़ने की अंदोह-नाक कैफ़ियत के बोझ तले आ कर
मैं एक बार फिर दब जाता हूँ
नज़्म
बदन का नौहा
क़ासिम याक़ूब