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बदन-दरीदा रूहों के नाम एक नज़्म | शाही शायरी
badan-darida ruhon ke nam ek nazm

नज़्म

बदन-दरीदा रूहों के नाम एक नज़्म

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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ख़्वाबों से तही बे-नूर आँखें
हर शाम नए मंज़र चाहें

बेचैन बदन प्यासी रूहें
हर आन नए पैकर चाहें

बेबाक लहू
अन-देखे सपनों की ख़ातिर

जाने अनजाने रस्तों पर
कुछ नक़्श बनाना चाहता है

बंजर पामाल ज़मीनों में
कुछ फूल खिलाना चाहता है

यूँ नक़्श कहाँ बन पाते हैं
यूँ फूल कहाँ खिलने वाले

इन बदन-दरीदा रूहों के
यूँ चाक कहाँ सिलने वाले

बेबाक लहू को हुर्मत के आदाब सिखाने पड़ते हैं
तब मिट्टी मौज में आती है

तब ख़्वाब के मअनी बनते हैं
तब ख़ुशबू रंग दिखाती है