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बद-गुमानी | शाही शायरी
bad-gumani

नज़्म

बद-गुमानी

साक़ी फ़ारुक़ी

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जो हो सके तो एक रोज़
ए'तिबार के अज़ाब से गुज़ार दे मुझे

कि एहतिमाल और है
सिफ़र नहीं तो फिर सिफ़र से जंग क्या

ख़ुदा के वास्ते मुझे बता
अगर किसी का इंतिज़ार ही न था

तो सारी उम्र किस के इंतिज़ार में गुज़र गई
जमाल-ख़ाँ-अचक-ज़ई

मेरा सवाल और है