तुम्हारे गले में
नए ख़्वाब के मोतियों की सुनहरी सी माला
हमारी नहीं है
समुंदर वो जिस पर
तुम्हारे क़दम कश्तियाँ हों
हमें सिर्फ़ दर्स-ए-फ़ना है
हमारे लिए तो
किसी अजनबी सी सदा के भँवर से निकलना भी मुमकिन नहीं है
हमें आश्ना सी निगाहों से
सब्ज़े में लिपटी हवा ने बुलाया तो
हम गिर पड़ेंगे
ख़िज़ाँ के शजर से
कोई आख़िरी फूल बन कर
हमारे हर इक आईने का तो शेवा है बस
टूटते दिल के एहसास से टूट जाना
क़याफ़ा लगाना
भला कौन सी आँख नमकीन से झूट के पानियों से भरी है
भला कौन से होंट शीरीनियाँ बाँटते हैं
शुरूआ'त-ए-चाहत में ऐसा क़याफ़ा लगाना नहीं जानते हम
नज़्म
बद-गुमान
सईद अहमद