जब हल्की फुल्की बातों से
नग़्मों की तनाबें बनती थीं
जब छोटे छोटे लफ़्ज़ों से
अफ़्कार की शमएँ जलती थीं
हर चेहरा अपना चेहरा था
हर दर्पन अपना दर्पन था
जो घर था हमारा ही घर था
हर आँगन अपना आँगन था
जो बात लबों तक आती थी
वो दिल से नहीं कर आती थी
कानों में अमृत भरती थी
और दिल को छूकर जाती थी
वो वक़्त बहुत ही प्यारा था
वो लम्हे कितने मीठे थे
जिस वक़्त की उजली राहों पर
आग़ाज़ तो है अंजाम नहीं
जिस वक़्त की उजली राहों पर
आग़ाज़ तो है अंजाम नहीं
वो वक़्त कहाँ रू-पोश हुआ
जिस वक़्त का कोई नाम नहीं

नज़्म
बचपन
फ़ारूक़ नाज़की