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बाज़ार | शाही शायरी
bazar

नज़्म

बाज़ार

मुज़फ़्फ़र वारसी

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एक मजबूर का तन बिकता है मन बिकता है
इन दुकानों में शराफ़त का चलन बिकता है

सौदा होता है अँधेरों में गुनाहों का यहाँ
ज़िंदगी नाम है हँसती हुई आहों का यहाँ

ज़िंदा लाशों के लिए सुर्ख़ कफ़न बिकता है
झूटी उल्फ़त के इशारों पे वफ़ा रक़्स करे

चंद सिक्कों के छनाके पे हया रक़्स करे
हुस्न-ए-मासूम का बे-साख़्ता-पन बिकता है

बेच कर अपना लहू आग कमाई जाए
आबरू क़ौम की सीजों पे लुटाई जाए

सर-ए-बाज़ार-ए-हवस प्यार का फ़न बिकता है