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बाज़-दाश्त | शाही शायरी
baz-dasht

नज़्म

बाज़-दाश्त

मुग़नी तबस्सुम

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राएगाँ वक़्त के सन्नाटे में
एक आवाज़ थी पीली आवाज़

कोई धड़कन थी गुज़िश्ता-दिल की
गुरबा-ए-शब की चमकती आँखें

ताक में थीं कि कहीं से निकले
मोश-ए-बे-ख़्वाब कोई

बंद आसेब-ज़दा दरवाज़े
आप ही आप खुले बंद हुए

हुजरा-ए-तार में जैसे कोई
रूह भटकी हुई दर आई थी

रूह कब थी वो निरी ख़्वाहिश थी
आग थी

आग पीने की हवस जाग उठी
राएगाँ वक़्त के सन्नाटे में