दौर-ए-हाज़िर के तुम
एक शर्मिंदा इंसान हो
मैं जो चीख़ा तो मेरी अना टूट कर
जंगलों की तपिश बन गई
दास्ताँ की ख़लिश बन गई
क़हक़हे बे-सदा क़हक़हे
मकड़ियों की फ़ज़ा में उड़ाते रहे
तेज़ मज़बूत क़ौमों के नाराज़ क़िस्से सुनाते रहे
मैं परेशान
नींदों के बादल हटा कर
बुझी रात के सादा पर्दे उठा कर
जो ख़ेमे से निकला तो आवाज़ आई
अभी तुम ने दुनिया भी देखी नहीं है

नज़्म
बातिन
जावेद नासिर