ऑक्सीजन की ट्यूब
और फाँसी के फंदे में वैसे भी क्या फ़र्क़ है
बात फाँसी या फाँसी के दिन की नहीं
मौत की भी नहीं
बात तो लाश के मज़हका-ख़ेज़ लगने की है
फ़िक्र लाशे की है
जाने कैसी लगे?
एक फ़ुट लम्बी पतली सी गर्दन
मिरे इतने भारी बदन पर
और ज़बाँ?
वो जो सुनते हैं इतनी निकल आएगी मुँह के बाहर
काली-माई की सूरत
कहीं वो डरा तो नहीं देगी बच्चों को मेरे
और वो सब नेक इंसान जो ग़ुस्ल देंगे मिरे जिस्म को
सो भी पाएँगे क्या चैन से?
या मिरा भूत उन को डराता रहेगा महीनों तलक
मैं नहीं चाहता कोई मुझ से डरे
कोई मुझ पर हँसे
ज़िंदगी इक लतीफ़े की सूरत कटी कुछ शिकायत नहीं
हाँ मगर
लाश की शक्ल में मज़हका-खेज़ लगने से डरता हूँ मैं
बात इतनी सी है
बात फाँसी या फाँसी के दिन की नहीं
नज़्म
बात फाँसी के दिन की नहीं
शारिक़ कैफ़ी