घनघोर घटा तुली खड़ी थी
पर बूँद अभी नहीं पड़ी थी
हर क़तरा के दिल में था ये ख़तरा
नाचीज़ हूँ मैं ग़रीब क़तरा
तर मुझ से किसी का लब न होगा
मैं और की गूँ न आप जोगा
क्या खेत की मैं बुझाऊँगा प्यास
अपना ही करूँगा सत्या-नास
ख़ाली हाथों से क्या सख़ावत
फीकी बातों में क्या हलावत
किस बिरते पे मैं करूँ दिलेरी
मैं कौन हूँ क्या बिसात मेरी
हर क़तरा के दिल में था यही ग़म
सरगोशियाँ हो रही थीं बाहम
खिचड़ी सी घटा में पक रही थी
कुछ कुछ बिजली चमक रही थी
इक क़तरा कि था बड़ा दिलावर
हिम्मत के मुहीत का शनावर
फ़य्याज़ ओ जव्वाद ओ नेक-निय्यत
भड़की उस की रग-ए-हमिय्यत
बोला ललकार कर कि आओ!
मेरे पीछे क़दम बढ़ाओ
कर गुज़रो जो हो सके कुछ एहसान
डालो मुर्दा ज़मीन में जान
यारो! ये हचर-मचर कहाँ तक
अपनी सी करो बने जहाँ तक
मिल कर जो करोगे जाँ-फ़िशानी
मैदान पे फेर दोगे पानी
कहता हूँ ये सब से बरमला मैं
आते हो तो आओ लो चला मैं
ये कह के वो हो गया रवाना
''दुश्वार है जी पे खेल जाना''
हर-चंद कि था वो बे-बिज़ाअत
की उस ने मगर बड़ी शुजाअत
देखी जुरअत जो उस सखी की
दो-चार ने और पैरवी की
फिर एक के ब'अद एक लपका
क़तरा क़तरा ज़मीं पे टपका
आख़िर क़तरों का बंध गया तार
बारिश लगी होने मोसला-धार
पानी पानी हुआ बयाबाँ
सैराब हुए चमन ख़याबाँ
थी क़हत से पाएमाल ख़िल्क़त
इस मेंह से हुई निहाल ख़िल्क़त
जुरअत क़तरा की कर गई काम
बाक़ी है जहाँ में आज तक नाम
ऐ साहिबो! क़ौम की ख़बर लो
क़तरों का सा इत्तिफ़ाक़ कर लो
क़तरों ही से होगी नहर जारी
चल निकलेंगी कश्तियाँ तुम्हारी
नज़्म
बारिश का पहला क़तरा
इस्माइल मेरठी