सुकूत-ए-आब में
इक बे-ख़बर मछली
किसी बे-मेहर काँटे को निगल कर
जूँ ही सतह-ए-आब से
उधर उठ आती है
तड़पती है
तो उस के साथ की
हर बा-ख़बर मछली समझती है
कि उस के एक साथी को
किसी दीवानगी ने आ दबोचा है
नज़्म
बा-ख़बरी
मोहम्मद अाज़म
नज़्म
मोहम्मद अाज़म
सुकूत-ए-आब में
इक बे-ख़बर मछली
किसी बे-मेहर काँटे को निगल कर
जूँ ही सतह-ए-आब से
उधर उठ आती है
तड़पती है
तो उस के साथ की
हर बा-ख़बर मछली समझती है
कि उस के एक साथी को
किसी दीवानगी ने आ दबोचा है