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पा-ए-जुनूँ शर्त नहीं | शाही शायरी
pa-e-junun shart nahin

नज़्म

पा-ए-जुनूँ शर्त नहीं

ज़हीर सिद्दीक़ी

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राह तारीक थी दुश्वार था हर एक क़दम
मंज़िल-ए-ज़ीस्त के हर गाम पे ठोकर खाई

मशअ'ल-ए-अज़्म लिए फिर भी में बढ़ता ही रहा
दर्द-ओ-आलाम की आँधी जो कभी तेज़ हुई

दामन-ए-शौक़ में मशअ'ल को छुपाया मैं ने
बहर बंदगी-ओ-शो'लगी मशअ'ल-ए-अज़्म

मेरी शिरयानों का हर क़तरा-ए-ख़ूँ वाक़िफ़ हुआ
दामन-ए-शौक़ भी जल-बुझ के कहीं राख हुआ

और फिर धुँदली हुई बुझती गई मशअ'ल-ए-अज़्म
राह कुछ और भी तारीक वो सियह होती गई

घोर अँधियारे के इफ़रीत मुझे डसते रहे
ज़िंदगी अपनी उन ही भूल-भुलय्यों में रही

अपनी मंज़िल का मगर मुझ को पता मिल न सका
हम-सफ़र और भी कुछ साथ चले थे मेरे

उन में वो जोश-ए-जुनूँ और न वो अज़्म-ओ-यक़ीं
मस्त-ओ-सरशार रहे बादा-ए-ग़फ़लत पी कर

ख़्वाब-ए-ख़रगोश में हर गाम पे मदहोश रहे
उन की मंज़िल ने मगर उन के क़दम चूम लिए

उन की उस नुसरत-ए-बे-जा पे मुझे रश्क नहीं
आज भी मुझ में है वो जोश-ए-जुनूँ अज़्म-ओ-यक़ीं

आज भी नाज़ है गो जहद-ओ-अमल पे अपने
मस्लहत-कोश नहीं आज भी मासूम-ए-जुनूँ

ख़िज़्र की बेजा ख़ुशामद पे नहीं राज़ी हुनूज़
हाँ मगर ज़ेहन के पर्दे पे उभरते हैं सवाल

ख़िज़्र की बेजा ख़ुशामद ही मुक़द्दम है यहाँ
वस्ल-ए-मंज़िल के लिए पा-ए-जुनूँ शर्त नहीं