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मजबूरी | शाही शायरी
majburi

नज़्म

मजबूरी

तालिब चकवाली

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बहुत जी चाहता है हर किसी से प्यार करने को
मगर ऐसी कहाँ क़िस्मत कि दिल मुझ को डराता है

कई बे-रंग से ख़ाके कई सद-रंग तस्वीरें
ख़ुदा मा'लूम किन तारीकियों से खींच लाता है

सुनाता है कभी बीती हुई बातों की शहनाई
कभी माज़ी के एल्बम से मुझे फोटो दिखाता है

जिन्हें मैं भूल जाना चाहता हूँ वो हसीं चेहरे
ज़बरदस्ती दिखाता और मुझ पर मुस्कुराता है

उन्हें क्या जानते हो तुम उन्हें पहचानते हो तुम
अदा-ए-तंज़ से हर एक पर उँगली उठाता है

यही तो हैं वो जिन के रात-दिन तुम गीत गाते थे
यही तो हैं वो जिन पर प्यार अब भी तुम को आता है

मैं कहता हूँ ख़ुदा के वास्ते ख़ामोश हो जाओ
सताने में किसी मजबूर को क्या लुत्फ़ आता है

मिरी मजबूरियाँ काफ़ी नहीं क्या मुँह चिढ़ाने को
जो तू भी मुँह चिढ़ाता और मेरी जान खाता है

जिसे मैं चाहता हूँ प्यार कर सकता नहीं उस से
मैं जिस से प्यार करता हूँ वो मुझ से रूठ जाता है