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अवाम | शाही शायरी
awam

नज़्म

अवाम

सलाम मछली शहरी

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खड़े हो आज जिस तहज़ीब के ऊँचे मनारे पर
सजाया है उसे शायद हमें बदनाम लोगों ने

जिधर से चल के तुम पहुँचे हो इन ज़र्रीं मनाज़िल तक
दिखाई है तुम्हें वो राह हम नाकाम लोगों ने

तुम्हारी बज़्म ज़ेहन-ओ-फ़िक्र की आराइशें की हैं
हम ऐसे ही असीर-ए-गुल असीर-ए-जाम लोगों ने

तुम्हारे जादा-ए-गुल-रंग की ये अहमरीं शमएँ
जलाई हैं हम ऐसे ही असीर-ए-दाम लोगों ने

किसी अंदाज़ से लेकिन तुम्हें पहुँचा दिया होगा
नई दुनिया नए इंसाँ का ये पैग़ाम लोगों ने

कि अक्सर अपने ही तख़्ईल के ख़ुश-रंग फूलों को
मसल कर फेंक डाला है ब-वक़्त-ए-शाम लोगों ने

बिठा कर मा'बद-ए-ज़र्रीं में ख़ुद नूरीं ख़ुदाओं को
किया है किस तरह ख़ुद ही उन्हें नाकाम लोगों ने

हसीं ता'बीर दो या तुम हमारे ख़्वाब लौटा दो
हमारी मा'रिफ़त भेजा है ये पैग़ाम लोगों ने