अपने माज़ी के घने जंगल से
कौन निकलेगा! कहाँ निकलेगा
बे-कराँ रात सितारे नाबूद
चाँद उभरा है? कहाँ उभरा है?
इक फ़साना है तजल्ली की नुमूद
कितने गुंजान हैं अश्जार-ए-बुलंद
कितना मौहूम है आदम का वजूद
मुज़्महिल चाल क़दम बोझल से
अपने माज़ी के घने जंगल से
मुझ को सूझी है नई राह-ए-फ़रार
आहन ओ संग ओ शरर बरसाएँ
आओ अश्जार की बुनियादों पर
तेशा ओ तेग़-ओ-तबर बरसाएँ
इक तसलसुल से हम अपनी चोटें
बे-ख़तर बार-ए-दिगर बरसाएँ
ज़ेहन पर छाए हैं क्यूँ बादल से
अपने माज़ी के घने जंगल से
नौ-ए-इंसाँ को निकलना होगा
इन अँधेरों को निगलना होगा
नज़्म
अक़ीदे
अहमद नदीम क़ासमी