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अपनी साल-गिरह पर | शाही शायरी
apni sal-girah par

नज़्म

अपनी साल-गिरह पर

ताबिश कमाल

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गए बरसों इक हासिल क्या!
फ़क़त इक मोम-बत्ती तीन-सौ-पैंसठ दिनों में

केक के ज़ीने पे चढ़ती है
ज़रा सी फूँक पर हम-राहियों के साथ बुझती है

धुआँ चकरा के रोशन-दान से बाहर निकलता है
छुरी की धार से कितने बरस काटूँ!

हवा का आश्ना चेहरा मिरी आँखों में रहता है
गए लम्हों को दोहराती हवा तर्ज़-ए-मोहब्बत है

वो आए तो नए लम्हों की रस्सी थाम कर चल दूँ
कहीं अंदर रुकी फूंकें लबों तक आएँ

तो ये बत्तियाँ गुल हों
अभी कल के दरीचे खुल नहीं पाए

मनाज़िर धुँद में हैं
आँसुओं से धुल नहीं पाए