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अपने शहर में फ़साद | शाही शायरी
apne shahr mein fasad

नज़्म

अपने शहर में फ़साद

अख़्तर यूसुफ़

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सफ़ेद कबूतरों से आज सारा आकाश ख़ाली है
धूप डरी हुई फ़ाख़्ता सी लगती है

मुंडेरों पे बैठी हुई ज़र्द है
काँप काँप उठती है हवा आदमी की तरह

कर्फ़्यू से भरे हुए शहर की सड़कों पे घोड़ों की वहशी टापें
आग उड़ाती हैं

मकान जलते हैं मिरे तुम्हारे
इन्दर हमारे धुआँ धुआँ सा कुछ रह रह उठता है

दौर में और पास में भी ज़ोरों के धमाके होते हैं
गोलियाँ ताबड़-तोड़ सनसनाती हैं

हड्डियों में उतरी जाती हैं
दिन लहू ख़ाक में लिपटा हुआ गुज़रता है

शाम भी लहूलुहान छिपकिली की तरह सहमी हुई चुप-चाप उदास उदास
धीरे से नदी में डूबती है

फिर सियाह होते हुए पेड़ों पे ढेर सारे गिध
अपनी पूरी ताक़त से अपने पर फड़फड़ाते हैं

सन्नाटा काएनात में और भी गहराता है
कुछ धुआँ धुआँ सा अंदर अंदर मेरे तुम्हारे ओर भी बढ़ जाता है