वही चेहरे नज़र के सामने हैं
जिन्हें पहचानना
मुश्किल नहीं है
ये मेरे सामने बरसों रहे हैं
मगर!
अब किस लिए
ये मेरे सर में
मुसलसल दर्द सा रहने लगा है
(उन्हें हर एक पल तक तक के शायद)
(मिरी आँखें ही शायद बुझ रही हैं)
मैं इन आँखों से
अब कितना दुखी हूँ
वही चेहरे
मैं जिन से आश्ना हूँ
मुझे आँखों पे कितना ज़ोर दे कर
उन्हें पहचानना पड़ता है
आख़िर!
ये बर्क़ी रौ सी कैसे छोड़ते हैं
थकन की और उकताहट की
आख़िर!
वो बातें ख़त्म कैसे हो गई हैं
वो आवाज़ें!
कहाँ हैं आज?
आख़िर!
वो इन आँखों में कैसे खो गई हैं
कि अंधे भी
तो इक दूजे को
आख़िर!
बग़ैर आँखों ही के पहचानते हैं
तो क्या?
आवाज़ आँखों से बड़ी है?
(ये हम पे कैसी बिपता आ पड़ी है?)
हमारी नस्ल!
कितनी ज़िंदा-दिल थी
हमारी नस्ल का अंजाम
आख़िर!
हुआ है किस लिए इतना भयानक
कि तक तक कर किसी को ऊब जाना
नज़र के साथ ख़ुद भी डूब जाना
नज़्म
अंजाम
मनमोहन तल्ख़