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अंधी काली रात का धब्बा | शाही शायरी
andhi kali raat ka dhabba

नज़्म

अंधी काली रात का धब्बा

वज़ीर आग़ा

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ऊँची नीची दीवारों में घिरे हुए
तुम इतने हिरासाँ इतने तन्हा

पहले कब तक
जाओ फिर से खाट पे लेटो

टिकटिकी बाँध के इस को देखो
कितना बे-बस कितना भयानक कितना तन्हा

डोलता पिया खोटा सिक्का अंधी काली रात का धब्बा
तुम ने इस धब्बे को अब तक पेशानी की शोभा समझा

और अब ख़ाली तरन बन कर चीख़ रहे हो
बोलो अपने होंटों पर कोई शब्द सजाओ

मंतर जापो हाथ उठा कर पढ़ो दुआएँ
चेहरा धो कर सीधे हाथ की उँगली के याक़ूत में झाँको

बोलो तुम ने क्या देखा है
सदियों तुम ने उस को चाहा

उस की सीमीं उँगली थामी चलना सीखा
उस के ठंडे नूरानी छितनार के नीचे

घास पे लेटे
दूध भरी किरनों में नहाए

प्यार भरी आँखों में झाँका
और अब क्या है

इक नुक़्ता इक डोलता पिया अंधी काली रात का धब्बा
नसीब का पैकर बे-रंगी का मज़हर तन्हा

इस को अब तुम क्या देखोगे
देखा भी तो

अपने ही अंदर झांकोगे