EN اردو
अंधेरे में सोचने की मश्क़ | शाही शायरी
andhere mein sochne ki mashq

नज़्म

अंधेरे में सोचने की मश्क़

अमीक़ हनफ़ी

;

अंधेरा था
अंधेरा लाल-क़िलआ जिस में इक काला हयूला था

हज़ारों क़ुमक़ुमों की रौशनी थी दायरा-दर-दायरा फिर भी
अंधेरा था

निगल डाला था जिस ने लाल क़िलए को घना गाढ़ा अंधेरा था
हज़ारों क़ुमक़ुमों की रौशनी में पास की चीज़ें ही पस-मंज़र

अंधेरा जिन का पस-ए-मंज़र
सड़क पर हर सड़क पर रौशनी की दौड़ जारी थी

अंधेरे में ग़ुबार-ओ-गर्द के उड़ते हुए ज़र्रों को रौशन कर रहे थे
बहम मुंक़ते करते रौशनी के दाएरे

अंधेरा कटती-फटती दौड़ती उड़ती बिखरती रौशनी को पी रहा था
अंधेरे का मगरमच्छ

अंधेरे के समुंदर में
उजाले की चमकती मछलियों को अपने दाँतों में दबाए तैरता था

अंधेरे का मगरमच्छ लाल-क़िलए पर
बड़ी ज़हरीली साँसें छोड़ता था

नज़र आता नहीं था लाल-क़िलआ
कि इस के बुर्ज कंगूरे दर-ओ-दीवार इक काला हयूला बन गए थे

हयूला बन गया था लाल-क़िलआ
मगर उस के वहाँ होने में कोई शक नहीं था

अंधेरा था
अंधेरे के समुंदर की गुफा में लाल-क़िलआ था