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अंधा | शाही शायरी
andha

नज़्म

अंधा

मैकश अकबराबादी

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सुनता है हुस्न-ए-शम्स-ओ-क़मर देखता नहीं
या'नी निज़ाम-ए-शाम-ओ-सहर देखता नहीं

उस के भी पैरहन पे गुनाहों के दाग़ हैं
दुनिया को चाहता है मगर देखता नहीं

उस को भी हैं नसीब मोहब्बत की लज़्ज़तें
दिल थामता है तीर-ए-नज़र देखता नहीं

उस के भी दिल में आग भड़कती है इश्क़ की
जलता है और रक़्स-ए-शरर देखता नहीं

उस के भी सर ने पाया है एहसास-ए-बंदगी
सज्दा में गर तू जाता है दर देखता नहीं

उस को सँभाल लेती हैं हर बार ठोकरें
चलता है और राहगुज़र देखता नहीं

बातों से ताड़ लेता है बातिन की हालतें
मिलता है और रू-ए-बशर देखता नहीं

हँसता है सिर्फ़ अपने लिए ग़ैर पर नहीं
रोता है और दामन-ए-तर देखता नहीं

मा'लूम है तमव्वुल-ओ-ग़ुर्बत की कश्मकश
आँखों से इम्तियाज़-ए-नज़र देखता नहीं

उस को सुकून चाहिए जीने के वास्ते
रहता है और अपना ही घर देखता नहीं