संदलीं जिस्म की ख़ुशबू से महकती हुई रात
मुझ से कहती है यहीं आज बसेरा कर ले
गर तिरी नींद उजालों की परस्तार नहीं
अपने एहसास पे ज़ुल्फ़ों का अँधेरा कर ले
मैं कि दिन भर की चका-चौंद से उकताया हुआ
किसी ग़ुंचे की तरह धूप में कुम्हलाया हुआ
इक नई छाँव में सुस्ताने को आ बैठा हूँ
गर्दिश-ए-दहर के आलाम से घबराया हुआ
सोचता हूँ कि यहीं आज बसेरा कर लूँ
सुब्ह के साथ कड़ी धूप खड़ी है सर पर
क्यूँ न इस अब्र को कुछ और घनेरा कर लूँ
जाने ये रात अकेले में कटे या न कटे
क्यूँ न कुछ देर शबिस्ताँ में अँधेरा कर लूँ
लेकिन इस रात की ये बात न बढ़ जाए कहीं
तुझ से मिल कर ये मिरे दिल को लगा है धड़का
राख हो जाऊँगा मैं सुब्ह से पहले पहले
खुल के सीने में जो एहसास का शोला भड़का
नज़्म
अंदेशा
क़तील शिफ़ाई