जो मुझ को लाई थी सुकून-गाह में
वो एक थी
सपीद, सिर्फ़ एक, उस के पहलुओं, जबीन और पुश्त पर
सलीब के निशान थे
मैं चूर चूर इक अज़ीम घाव था
वो मुझ को दस्त-ए-मेहरबाँ में सौंप कर
चली गई तो मैं ग़ुनूदगी की बे-कराँ मुहीब धुँद में भटक गया
हर एक रह-गुज़र पे गाड़ियों बसों का कारवाँ उमँड पड़ा
अजीब इंक़लाब था मिरी नज़र के सामने
वो एक पल में सब सपीद हो गईं
सपीद सब सपीद, उन के पहलुओं, जबीन और पुश्त पर
सलीब के निशान दफ़अतन उभर के आ गए
अलम-नसीब उन के बे-अमाँ मकीं
मिरे ही हम-नफ़स वफ़ा-शिआर वो अज़ीज़ थे
जो सादगी से कोई मुश्तहर फ़रेब खा गए
किसी मुहीब जंग भूक क़हत या वबा की ज़द में आ गए
नज़्म
ऐम्बुलेंस
बलराज कोमल