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अली-बाबा कोई सिम-सिम | शाही शायरी
ali-baba koi sim-sim

नज़्म

अली-बाबा कोई सिम-सिम

फ़हीम शनास काज़मी

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अली-बाबा
ये उजलत हिम्मतों को पस्त करती है

मोहब्बत रास्ते में मौत को तज्वीज़ करती है
हवस तेरी घने जंगल से चोरों को

मिरी बस्ती में ले आई
वो चालीस चोर.....

बस्ती के गली-कूचों में अब मक़्तल सजाते हैं
अली-बाबा

ख़ज़ाना पाने की उजलत
तिरे माज़ी की महरूमी का

अबतर शाख़साना है
ये तेरी बद-नसीबी से भी बद-तर इक फ़साना है

नहीं है कोई मरजीना, तिरी अच्छी कनीज़ों में
जो बस्ती को बचा लेती

सलामत है न तेरा घर
न मेरा दिल

न अब दरबार-ए-शाहाना?
तुझे क्या है?

हवस तेरी रहे बाक़ी
ये बस्ती आग की तस्वीर हो जाए

अगर ये राख का ही ढेर हो जाए
तुझे क्या है?

कनीज़ों ख़ासा-दारों और ग़ुलामों से
तुझे फ़ुर्सत नहीं मिलती

वही बग़दाद जिस के सब गली-कूचे
कभी थे मह-वशों के

गुल-रुख़ों के आईना-ख़ाने
सितारे आसमाँ से झुक के जिन को रोज़ तकते थे

जो औराक़-ए-मुसव्वर थे
वहाँ पर धूल उड़ती है

हर इक जानिब अजल की हुक्मरानी है
ज़मीं पर आग जलती है

ज़मीं पर आग जलती है
अली-बाबा

ख़ज़ाना पाने की मसर्रत से ज़ियादा अब
अज़िय्यत है

ख़ज़ाना पाने की उजलत
हवस तेरी

घने जंगल से चोरों को मिरी बस्ती में ले आई
कोई सिम-सिम

कोई भी इस्म-ए-आज़म अब
हमारी मुश्किलें आसाँ नहीं करता

कोई दरमाँ नहीं करता