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अलमिया | शाही शायरी
alamiya

नज़्म

अलमिया

हुमैरा राहत

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दरीचे में खड़ी बारिश को
सड़कों पर बरसते देखती हूँ

सोचती हूँ
दुख को अपने नाम क्या दूँ मैं

तमन्नाओं को गिरवी रख के
ख़्वाबों के सभी दर-बंद कर के

कितनी मुश्किल से
छुड़ा कर अपना दामन

छत और आँगन की तमन्ना से
फ़क़त इक घर की ख़्वाहिश में

ये ज़िंदाँ मोल ले कर
इस पे अपने नाम की तख़्ती लगाई है

बस इक ख़्वाहिश है जो
सावन-रुतों में

दिल बहुत बे चैन रखती है
कि मैं सावन की

ठंडी नर्म बौछारों का
रेशम लम्स

अपने तन बदन पर ओढ़ लेती
है मगर कुछ यूँ

मैं बारिश देख तो सकती हूँ
इस को छू नहीं सकती