अजनबी राह-गुज़र सोचती है
कोई दरवाज़ा खुले
हर तरफ़ दर्द के लम्बे साए
रास्ते फैल गए दूर गए
धड़कनें तेज़ हुईं और भी तेज़
अजनबी राह-गुज़र सोचती है
कोई महजूब नज़ारा उभरे
और मजबूर फ़क़ीरों की तरह
हर क़दम चलती है दस्तक दस्तक
हर नफ़स एक नई राह हर इक सम्त में भागी लेकिन
जिस तरह वस्ल का हर लम्हा जुदाई का सफ़र
अजनबी राहगुज़र सोचती है
शायद अब ऐसा मक़ाम आ जाए
हर क़दम आप हर इक राह-गुज़र हो मंज़िल
ख़ुद-ब-ख़ुद दर्द का हर लम्हा हो लुत्फ़
अजनबी राह-गुज़र सोचती है
दर-ब-दर ख़ाक-बसर सोचती है
नज़्म
अजनबी राह-गुज़र
सिद्दीक़ कलीम