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अजनबी | शाही शायरी
ajnabi

नज़्म

अजनबी

कैफ़ी आज़मी

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ऐ हमा-रंग हमा-नूर हमा-सोज़-ओ-गुदाज़
बज़्म-ए-महताब से आने की ज़रूरत क्या थी

तू जहाँ थी उसी जन्नत में निखरता तिरा रूप
इस जहन्नम को बसाने की ज़रूरत क्या थी

ये ख़द-ओ-ख़ाल ये ख़्वाबों से तराशा हुआ जिस्म
और दिल जिस पे ख़द-ओ-ख़ाल की नर्मी भी निसार

ख़ार ही ख़ार शरारे ही शरारे हैं यहाँ
और थम थम के उठा पाँव बहारों की बहार

तिश्नगी ज़हर भी पी जाती है अमृत की तरह
जाने किस जाम पे रुक जाए निगाह-ए-मासूम

डूबते देखा है जिन आँखों में मय-ख़ाना भी
प्यास उन आँखों की बुझे या न बुझे क्या मालूम

हैं सभी हुस्न-परस्त अहल-ए-नज़र साहिब-ए-दिल
कोई घर में कोई महफ़िल में सजाएगा तुझे

तू फ़क़त जिस्म नहीं शेर भी है गीत भी है
कौन अश्कों की घनी छाँव में गाएगा तुझे

तुझ से इक दर्द का रिश्ता भी है बस प्यार नहीं
अपने आँचल पे मुझे अश्क बहा लेने दे

तू जहाँ जाती है जा, रोकने वाला मैं कौन
अपने रस्ते में मगर शम्अ जला लेने दे