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अजब सा एक क़िस्सा | शाही शायरी
ajab sa ek qissa

नज़्म

अजब सा एक क़िस्सा

फ़य्याज़ तहसीन

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मिरी आँखों का हर मंज़र
उदासी का दरीदा पैरहन है

शहर की गलियाँ
ख़मोशी का कफ़न पहने पड़ी हैं

चाँदनी जैसे
किस की आँख का यरक़ान हो

और दूर तक फैली छतों पर
लेटने वालों के चेहरों पर बरसता हो

छतों पर लेटने वालों के चेहरे ज़र्द हैं
ठंडी हवा के एक झोंके को तरसते हैं

उधर बाहर बहुत आहिस्तगी से ख़ौफ़ की चादर
किसी नादीदा ताक़त ने दरख़्तों पर भी फैला दी

उदासी से तराशीदा दरख़्तों की हर इक ख़्वाहिश
किसी बारिश के क़तरे में मुक़य्यद है

जो गिरता है न मिटता है
अगर होता मिरे बस में

तो मैं बारिश का क़तरा बन के गिरता
हवा का सर्द झोंका बन के

हर घर में उतरता
और उन वीरान आँखों को

उदासी से तराशीदा दरख़्तों को ख़ुशी देता
मगर में ख़ुद उसी मंज़र का हिस्सा हूँ

अजब सा एक क़िस्सा हूँ