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अजब पानी है | शाही शायरी
ajab pani hai

नज़्म

अजब पानी है

रफ़ीक़ संदेलवी

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अजब पानी है
अजब मल्लाह है

सूराख़ से बे-फ़िक्र
आसन मार के

कश्ती के इक कोने में बैठा है
अजब पानी है

जो सूराख़ से दाख़िल नहीं होता
कोई मौज-ए-नहुफ़्ता है

जो पेंदे से
किसी लकड़ी के तख़्ते की तरह चिपकी है

कश्ती चल रही है
सर-फिरी लहरों के झूले में

अभी ओझल है
जैसे डूबती अब डूबती है

जैसे बत्न-ए-आब से
जैसे तलातुम की सियाही से

अभी निकली है
जैसे रात-दिन

बस एक ही आलम में
कश्ती चल रही है

क्या अजब कश्ती है
जिस के दम से ये पानी रवाँ है

और उस मल्लाह का दिल नग़्मा-ख़्वाँ है
कितने टापू राह में आए

मगर मल्लाह
ख़ुश्की की तरफ़ खिंचता नहीं

नज़ारा-ए-रक़्सन्दगी ख़्वाब में
शामिल नहीं होता

अजब पानी है
जो सूराख़ से दाख़िल नहीं होता