मिरा वजूद
देखते ही देखते
एक अजाइब-ख़ाने में ढल रहा है
कि मेरे ला-शुऊर ने
आसार-ए-क़दीमा की नादिर इनायतों को
छुपा के मुझ से
मुझ ही में जम्अ कर दिया है
यहाँ कहीं किसी रैक में
मिरे हुनूत-शूदा हर्फ़ और लम्हे
पड़े हुए हैं
जिन्हें न-जाने कौन सा मसाला लगा दिया गया है
कि मिरे जिस्म की हरारत से भी वो
गल नहीं रहे हैं
इन अलमारियों से
मिरी टूटी हुई चूड़ियों के साज़ की
आवाज़ आ रही है
ये देखो शेल्फ़ में
मेरी बचपन की गुड़िया का
टूटा हुआ जिस्म सो रहा है
कहीं मेरी सिंघार-मेज़ का आईना
बे-रंग हो कर चटख़ गया है
मगर अब भी
मेरे अज़ाब-लम्हों का
अक्स दे रहा है
कहीं किसी सुरमे-दानी में
शायद कभी मैं ने अपनी आँख छोड़ दी थी
जो उस में से मुझे घूरती है
और मेरी ज़िंदगी
मेरे ज़ंग-आलूद ज़ेवरों में
दब के चीख़ती है
और पायलों की आवाज़ से डर रही है
एक टूटी हुई कंघी से
मिरे बाल उलझे हुए हैं
और किनारे पे रक्खी हुई
सुराही से प्यास की बू
रिस रही है
किसी घड़ियाल की टूटी हुई सूई
इक अज़ाब-लम्हे में मुर्तइश है
और क़रीब ही
मेरे जज़्बों के तालाब से
बास उठ रही है
और तमाश-बीन,
जौक़-दर-जौक़ मेरे अजाइब-ख़ाने को
देखने को आ रहे हैं
इन में से कोई तमाश-बीन
इस अजाइब-ख़ाने की
साँस लेती हुई मौत को
तज़हीक से देख कर
नज़र-अंदाज़ करता हुआ जा रहा है
और कोई अजाइबात का शौक़ीन
इन तमाम अश्या पे तहक़ीक़ कर के
अपना-आप साबित करना चाहता है
मगर उन को धूल में पड़ी हुई
तारीख़ की उलझी हुई डोर का
कोई सिरा नहीं मिल रहा है
और में किनारे पे खड़ी हुई
अपने उसी एक सिरे के मिलने की मुंतज़िर हूँ
कि मिरा वजूद देखते ही देखते
एक अजाइब-ख़ाने में ढल चुका है
नज़्म
अजाइब-ख़ाना
सरवत ज़ेहरा